ग़म एक सिगरेट ,
ज़िंदगी के होटों मे
जलता रहा |
सीने की गहराइयों मे,
दर्दीला , कडुआ धुआँ,
उतरता रहा |
वो एक कश ,
एक और,और एक कश,
सिगरेट खत्म होती रही |
और ज़िंदगी !
क्या सोचते हो ? बच गई !
नही , खत्म होती रही |
बस एक कश और,
फिर ज़िंदगी की उंगलियों से,
सिगरेट फिसल गई |
बस एक कश और,
फिर 'रुह' की उंगलीयों से
बदन फिसल गया |
और वक्त बुढा दद्दा,
देख उस लाश को,
देर तक हँसता रहा |
और फिर
जाने क्या सोच कर,
रो दिया |
Wednesday, February 14, 2007
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