Wednesday, February 14, 2007

पगडंडी-रुदन

पुरातन
भग्नावशेषी, पगडंडी,
देखो रोते हुवे क्या कहती है |

अब न मै बची हूं,
न वो समय,
जब मैं चलती थी
व्रृक्षों के पहलू से सटकर,
नदियों के किनारों से लिपटकर,
शरीर पर अपने,
" पानी भर गीत गाती जाती औरतों,
हँसते-खेलते
उधम मचाते बच्चों,
आपस मे बतियाते मर्दों "
के पैरों के बोझ को सह कर,
घास के समंदर से ,
निकलती थी बह कर |

मगर अब तो,
बडे-बडे शहर,
और लम्बी चौडी
इमारतों के पहलू से सट कर
चलती सडकें हैं ,
जिन पर रेंगता है
मूर्दा जीवन |

और मैं पगडंडी !
गुज़रे ज़माने की बात हूं,
कोई कदम अब
नही चलते मुझ पर,
मैं भुलाई ओ मिटाई जा चूकी हूं |

हाँ कभी-कभी
मेरे भग्नावशेष
कभी हो चुके
मेरे स्वर्णीम युग का
संकेत देते हैं|

अब लौग
मुझे देख कर
मुँह फेर लेते हैं |

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