Wednesday, February 14, 2007

निर्लिप्तता

मै आकाश हूं !
अनंत अनंत विस्तारीत आकाश,
जहां आता है जो
सब समाहीत हो जाता है वो |

मन पाँखि कल्प पर फैलाये
भरता रहता है उडान दिगंतो तक,
सुख ओ दुख आते है पथिक से
चले जाते है कर क्षण भर विश्राम,
विचारों के मंद-मंद झोंके चलते
चलते और रुक जाते है,
आंधी भी क्रोध की
चलती है , रुक जाती है,

यूं ही घटते जाते हैं,
अनेका अनेक घटनाक्रम |

और मैं !
वैसे ही जैसे
तटस्थ ओ निर्लिप्त है
संसार के घटनाक्रम मे
वह पृथ्वि का धारणकर्ता
खडा रहता हूं
तटस्थ ओ निर्लिप्त|

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