ओ क्रष्ण के उत्त्राधिकारी,
बजाओ
रख कर अपने अधरों पर बांसुरी |
हां ! बजाओ वे स्वर मधुर,
की जैसे प्रथम दर्शन मे कान्हा के,
निकले होंगे यशोदा के ह्रदय से |
(जीवन का प्रारंभ और कहा है |)
हां ! बजाओ वे प्रेमिल स्वर,
की जैसे निकले होंगे कान्हा की बांसुरी से,
राधा से मिलन के समय |
हां ! बजाओ वे आक्रोशी स्वर भी,
जो सुने होंगे संसार ने,
तब जब कंस का वध हुवा होगा |
हां ! बजाओ वे सहायक स्वर भी,
जो कान्हा ने सुने होंगे,
कौरव सभा मे,
जब द्रोपदी ने उन्हे पूकारा होगा |
हां ! बजाओ,
वे उच्च हिमगीरी से स्वर,
जो फूंके होंगे क्रष्ण ने शंख से,
महाभारत यूद्ध के समय |
और हां,
वे स्वर न भुल जाना वादक,
कालातीत, जीवन्त ,
महान,उच्च, हिमालय सद्रुश्य स्वर,
गीता के रुप मे जो,
प्रस्फुटित हुवे थे क्रष्ण मुख से |
बजाओ ओ वादक,
और बजाओ,
किसी एक धुन पर न रुक जाना |
ओ क्रष्ण के उत्त्राधिकारी,
तुम्हारी बांसुरी के स्वरों मे,
जीना चाहता हूं मैं,
जीवन का हर क्षण |
Wednesday, February 14, 2007
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