हटाया जब मैने
परदा खिडकी पर से,
खिडकी पर झूलती धूप
कर गई प्रवेश कमरे मे ,
और लिपट गई
मुस्कूराकर मेरे बदन से |
वो उसका मधूर स्पर्ष,
वो उष्ण अनुभूति ,
कितनी सुखद
जैसे पा गया हो
इच्छित वर कोई देव से |
कितने ही क्षण
हम खडे रहे
यूं ही संग ,
फिर जैसे
हो शर्म से लाल, लजा कर
चली जाती है कोई नव वधू
चली गई धूप
मेरे आलिंगन से |
मे खडा रहा
कितने ही क्षण
ले कर हाथों मे
उस सुखद मिलन की स्म्रूति |
Wednesday, February 14, 2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment