Friday, February 16, 2007

ओह रे दाता

ओह रे दाता,
ओह रे ये मन के बंध |

ओह ये परंपरा की गाँठे,
कृपा से जीनकी मानव,
हो उत्पन्न जन्मांध |

करो बंद वेद ओ गीता,
और शब्दों का व्यापार,
सत्यतः हो सत्य द्वन्द |

अंतस मे आये नव वायू,
खोलो पुरातन कपाट,
पडे है जो कब से बंद |

1 comment:

Manish said...

Wah wah...Jawaab nahi aapka