Wednesday, February 14, 2007

दो क्षण

(१)
निखर उठा प्रभात का रुप
खग वाणी हो गई मुखर |
हो उठी पूलकित ये धरा
खील गये कलीयों के अधर ||

एक उत्सव क जैसे हुआ
वसुंधरा पर उदघाटन |
तुलसी मे जल चढाने को
प्रिये ! तुम आयीं जीस क्षण ||
(२)
चंद्र उतर आया धरा पर
खो बैठे सुध अपनी तारे सारे |
हो गया व्याकुल समीर |
एक स्पर्ष को "प्राण" तुम्हारे ||

रात्री होने लगा दिवस भ्रम
टुट गया जैसे सनातन प्रण |
तुलसी मे जल चढाने को
प्रिये ! तुम आयीं जीस क्षण ||

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