दिन भर का जागा, थका-हारा,
वहाँ दुर , उस पहाड के पिछे,
जा अपने घर सो गया सुरज |
शहर की तमाम इमारतें
औढ बैठी हैं अंधेरे की चादर |
गलीयों मे फेरी लगाती है
गर्म दिन की गर्म रात
बेचारा चांद ताकता हसरत से
काला लबादा ओढे धरती की और |
उसे देखने को नही कोई भी,
इस तपती गर्म रात में |
सब आगोश मे पडे हैं
अपने-अपने घरों मे
कुलर की ठंडी हवा के
दिन भर की गर्मी से बैचेन, हांफता,
फैला पडा है वक्त बुढा दद्दा,
रात की कदरन ठंडी हवा मे
सोचते बिते ठंडे दिनो,ठंडी रातों को |
सोयी रहती है धरती निरवता के साम्राज्य मे |
रात धिरे-धिरे रोज ही सी
बढती है अपनी अनिवार्य मृत्यु की और |
कल फिर दिन होगा 'एक गर्म दिन' |
Wednesday, February 14, 2007
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