और अंततः
हो ही गया दिवस का देहावसान |
दूर पहडों के पीछे
उस ताल में
समय ने पिंडदान कर दिया |
देख रहा हूं
दिवस विरह मे संध्या
बहा रही है अश्रु |
नयन रक्तिम हो रहे हैं |
एक काली छाया : म्रूत्यु विषाद की
ढक रही है संसार को
धिरे-धिरे....
Wednesday, February 14, 2007
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