बाँह पसारे बढा था मैं उसकी और,
उसे अपने अंक मे लेना चाहता था,
उसे अपने मे समों लेना चाहता था |
कुछ कदम मगर पिछे हो गया वो,
नही इसलिये की अंक मे ले लुंगा उसे,
इसलिये की मिट जाने का डर था उसे |
और मैं ! खडा रहा बस बाँह पसारे,
पुरातन है ये बात, आज की नही है,
मगर आज भी हर उठी बाँह मेरी है |
Monday, February 19, 2007
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1 comment:
Accha hai.
Amrita Preetam ki si aavaaz hai! It is a creditable effort!
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