रोज़ कदम बढाता हूं मैं,
रोज़ दिवारों से टकराता हूं |
रोज़ ज़ख्म होते है हरे,
रोज़ मै मरहम लगाता हूं ||
वो सरहद न पुछो मुझसे ,
जीसे मैं खुद ही भुल जाता हूं |
याद आते है तब दायरे,
जब साथ किसी का चाहता हूं ||
Monday, February 19, 2007
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