Monday, February 19, 2007

अपनी बात

कोई बेल कैसे विकसित होती है ? उत्तर है बिज से ! तो मेरी काव्य की बेल का बिज कहां से पडा ! अपने अतित मे झांकता हूं तो कुछ धुंधली तस्विरें जहन मे उभरती हैं , पहली अपने नाना की , शायद उनके भजन सुनते- सुनते अचेतन मे कहीं शब्दों का जादू उतर गया, काव्य का बिज सम्भवत वहीं से पडा | दूसरी तस्विर ज्यादा स्पषट है वो है मेरी आई की जो समय के अनुरुप , अवसर विशेष पर त्व्रित कविता करति और बडे चाव से सबको सुनाती और सराहना पाती, ऐसे अनेक अवसरों ने अचेतन मे पडे काव्यबिज की सिंचाई की और मेरे अंतर मे काव्य की बेल विकसित हो गई | मेरी दादी की कहानियां मुझे कविता के प्रारंभिक विषय उपलब्ध कराति रही , पर साहित्य साधना के लिये अत्यंत आव्श्यक अध्ययन सामग्री मेरे लिये मेरे बाबा ने जो स्वयं मराठी साहित्य मे काफी रुची रखते है बडी मात्रा मे उप्लब्ध करवाया , इसके अलावा समय-समय पर मेरे मामा ने जो स्वय अच्छे कवि एवं लेखक भी है मेरा उचित मार्गदर्शन किया और मेरी गलतीयों को सूधारने मे मेरी सहायता की| तो एक प्रकार से सहित्य कि ये बेल पारिवारिक लालन पालन से विकसित हुइ |

प्रारंभिक दौर के बाद एक समय ऐसा आया जब मुझे अपनी लेखन शैली मे बदलाव कि आवश्यकता महसूस हूई और मैने स्वयं की एक वाचन पधति बना कर उसके अनुरुप लिखना प्रारंभ किया और आज मेरी समस्त कविताएँ मेरी इसी शैली मे लिखी हुई हैं |

कालेज के दिनों मे मुझे गजलें सुनने - पढने का चाव हुवा और इस विधा मे भी मेने कुछ प्रयास किये हांलाकी बहर के अक्षान के कारण इसमे त्रुटियां भी है पर फिर भी मैं इस विधा मे कुछ ना कुछ लिखता रहता हूं , हां इस विधा के प्रभाव से मैने उपनाम "रुह्" अवश्य रख लिया

मेरी इस यात्रा मे एक नया मौड आया जब मेरी शादी स्वयं एक कविता से हो गई जो शब्दों से नही नृत्य के द्ववारा काव्य के भावों को प्रकट करती है, इस मौड ने मेरे काव्य मे एक नया आयाम जौड दिया और अब मेरी कविताऔ मे मैं अभिनय के तत्व भी सहजता से सम्मीलित कर पा रहा हूं |

अंत मे अपने पाठकों से मात्र यही निवेदन करना चाहूंगा कि ये विश्वजाल मेरा प्रारंभीक प्रयास है , आपसे मिलने वाला प्रतिसाद मेरे उत्साह मे व्रुद्धि करेगा और अगली बार आप इस बेल को और विकसित पायेंगे एवं मेरे काव्य को नविन रंगो मे रंगा पायेंगे |



ऋषिकेश खोङके " रुह "

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