मैने तो कभी न कहा था,चाहो,
था जो नाता दुर से समिप का,
बस इतना ही चाहा था निभाओ |
तुमने किन्तु रीश्तों की माला तोडी,
एक प्रतिमा प्रेम की सदा को
ह्रदय की निर्जनता मे छोडी |
अब ह्रदय सूना रहेगा सदा,
बस एक नाम तेरा ही हवाओं मे,
यहाँ गुंजता रहेगा यदा-कदा |
Monday, February 19, 2007
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1 comment:
बहुत ही प्यारी रचना । प्रेम और समर्पण के भावों से ओतप्रोत । भावभीनी रचना के लिए बधाई
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