उठा आज अंतर से कैसा ये गान,
हो उठे पुलकीत मेरे प्राण |
ओह ! ये गान तो है प्रित का,
लाया है स्मरण मन-मित का,
हो रहा है रोम-रोम स्पंदित,
कैसी मधुर ओ मोहनी तान ||
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मैने अपने लेखन को यज्ञ माना है | शब्द यज्ञ ! और इस यज्ञ मे मेरे सभी अपनो ने आहूति अर्पित की है | किन्तु ये यज्ञ मै समर्पित् करता हुँ अपने आई-बाबा को जिन्होने इसे हमेशा प्रजव्लित रखा | :- ऋषिकेश खोङके "रुह"
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