प्रकट प्यार करो |
स्वप्न सकार करो ||
विलंब ये किसलिये |
प्रिय ! पथ पार करो ||
अधर स्वयं बोलेंगे |
भावों का तो संचार करो ||
भूमी न पग छूऍगे |
प्रेम को आधार करो ||
सुनो "रुह" के कथन |
प्यार-प्यार करो ||
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मैने अपने लेखन को यज्ञ माना है | शब्द यज्ञ ! और इस यज्ञ मे मेरे सभी अपनो ने आहूति अर्पित की है | किन्तु ये यज्ञ मै समर्पित् करता हुँ अपने आई-बाबा को जिन्होने इसे हमेशा प्रजव्लित रखा | :- ऋषिकेश खोङके "रुह"
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