रात की देगची मे
आज फिर
मेरा ग़म पकता है|
इस देगची मे
अक्सर मैने
अपना ग़म पकाया है,
आँसुओं से किया है तर
सुखा गला,
जाने कितनी बार
इसी तरह
मन की भूख को मिटाया है |
आज फिर
भूखा है मन,
आज फिर
मेरे पास है पकाने को
बहूत सा ग़म,
रुह की थाली मे है
बहूत सा दर्द,
आँखों की मशकों मे
ढेर सारा पानी है |
रात की देगची मे
आज फिर
मेरा ग़म पकता है |
आज फिर
जश्न होने वाला है |
Monday, February 19, 2007
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2 comments:
Behtareen! Bahut accha kaha hai! Maza aa gaya.
aap ki kavita aur shailee aachi lagi.
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