वही है संसार
समेशा ही सा , दौङता-भागता
परीद्रूष्य मे वही
मकान,ढैर सारे मकान
रोज़ बनते-बिगडते |
वही स्वप्न
सुख के, संपन्नता के,
अपने आशीयाँ के |
वही आदमी
रत अपने मे, कोई मरे-जीये |
वही चंद विचारों के तुकङे,
यहां-वहां बिखरे |
वही सत्ता के झगडे, मार-काट
खून, हाहाकार,चिख-पुकार
त्राहीमाम के स्वर
यत्र-तत्र, कटे-फटे, जले-अधजले शव |
बदलाव कहीं है ?
नही ! बदलाव कहीं भी नही है,
सब कुछ
वो जो भी है आसपास जीवन
स्थीर है |
Wednesday, February 14, 2007
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